मंगलवार, 6 जुलाई 2010

आओ कि कोई ख़्वाब बुने कल के वास्ते

आओ कि कोई ख़्वाब बुने कल के वास्ते

वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की

डस लेगी जानोदिल को कुछ इस तरह के जान-ओ-दिल

ताउम्र फिर कभी न कोई ख्वाब बुन सके

साहिर लुधियानवी

आजकल कितना बेकार लगता है सब कुछ. जी करता है दुनिंया को आग लगा दूं, मगर सामने तालाब दिखता है , शाम पड़े बच्चे, खिलते फूल और फिर ज़हन में कोई चुपके से सरगोशी करता है, "फबे आयए आलाए रब्बे कोमा, तुकज्ज़ेबान ...!" (और तुम अपने रब की कौन कौन सी न'मतों को झुटलाओगे )

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